Saturday, February 8, 2025

मऊनी , दउरी , ढाका

 
सिक् से बनता है इसलिए बिहार में से सिक्की कला का नाम दिया गया है। बनता तो पूरे बिहार में है पर असली ब्रांडिंग मिथिलांचल में हुई है। हमारे भोजपुरिया इलाके में घरेलू उपयोग के लिए सदियों से इसका निर्माण होता है पर किसी को पता नहीं की अभी एक लोक कला है और इसके लिए भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिलता है किसी को आज तक मिला नहीं भोजपुरी इलाके से और आप घर-घर में जाकर देख लीजिए कोई ऐसा घर नहीं मिलेगा जहां आपको दौरी मौनी और कई तरह के कई साइज के सिक्क बने सामान नजर नहीं आएंगे। मूंज के बेरुआ से यह तैयार होता है। खर भी इस्तेमाल किया जाता है। यह एक ग्रामीण कला है जो महिलाएं पीढ़ी दर पीढ़ी एक दूसरे को हस्तांतरित करते रहती इसको बनाने के लिए एक विशेष प्रकार का कांटा होता है जिससे सुआ बोलते हैं। उसी की सहायता से हाथ से इसे तैयार किया जाता है रंग-बिरंगा बनाने के लिए बेरुआ को कई रंगों से रंग दिया जाता है यह रंग गर्म पानी के साथ रात भर तैयार होता है इसी कारण से सूखने के बाद रंग नहीं जाता शादी विवाह में बेटियों के विदाई के समय कई डिजाइन की सिक्की कला की कलाकृतियां आपको देखने को मिल जाएंगे। सबसे ज्यादा इसका इस्तेमाल घूंसार में भूजा भूजावाने में होता है। पूजा पाठ धर्म कर्म घर के छोटे-मोटे घरेलू उपयोग में भी इस्तेमाल किया जाता है। पहले के जमाने में स्टील और प्लास्टिक के बर्तन इस्तेमाल नहीं होते थे उनकी जगह यही इस्तेमाल होता था अनाज रखने के लिए सब्जी रखने के लिए। आज भी गांव में दही बेचने के लिए लोग लाते हैं तो इसी में रखकर लाते हैं जिस मिट्टी का बर्तन नहीं फूटता है पटना जैसे शहरों में प्रदर्शनी में इन चीजों को देखकर शहर के लोगों को आश्चर्य होता है पर गांव में इतनी बड़ी कला घर-घर के कोने में दम तोड़ रही है। 

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